हाड़ी रानी की बावड़ी, टोड़ारायसिंह ,टोंक

 

हाड़ी रानी की बावड़ी टोड़ारायसिंह टोंक

हाड़ी रानी की बावड़ी भारत में राजस्थान राज्य के टोंक जिले के टोडारायसिंह शहर में स्थित एक बावड़ी है । ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण 17वीं शताब्दी ईस्वी में हुआ था।


टेलीग्राम ज्वाइन करेयहाँ क्लिक करे 

बावड़ी आयताकार है जिसमें एक तरफ दो मंजिला गलियारे हैं, जिनमें से प्रत्येक में मेहराबदार द्वार है और निचली मंजिल के नीचे ब्रह्मा, गणेश और महिषासुरमर्दिनी के चित्र हैं।


हादी रानी को उनके महान चरित्र के लिए जाना जाता है। वह हाडा राजपूत की बेटी थी और उसकी शादी मेवाड़ के सलूंबर के एक सरदार चुंडावत से हुई थी। हादी रानी ने अपने पति को युद्ध में जाने के लिए प्रेरित करने के लिए ही अपने जीवन का बलिदान दिया। वर्ष 1653-1680 में मेवाड़ के महाराजा और औरंगजेब के बीच युद्ध हुआ था। मेवाड़ के महाराजा ने अपने पति को युद्ध के लिए बुलाया। लेकिन सरदार युद्ध में जाने से हिचकिचाते थे क्योंकि उनकी शादी कुछ दिन पहले ही हुई थी। हालाँकि, एक राजपूत होने के नाते और राजपूत सम्मान की रक्षा के लिए उन्हें युद्ध में शामिल होना पड़ा और उन्होंने हादी रानी से उन्हें युद्ध के मैदान में ले जाने के लिए कुछ स्मृति चिन्ह देने के लिए कहा। हादी रानी ने सोचा कि वह मेवाड़ के राजपूत होने के अपने कर्तव्य को पूरा करने में उनके पति के लिए एक बाधा थी। इसलिए, अपने पति को युद्ध में जाने और मेवाड़ की रक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए, उसने अपना सिर काटकर अपने पति को सौंपने का आदेश दिया। अपनी प्यारी हादी रानी का सिर देखकर सरदार चकनाचूर हो गया, लेकिन फिर उसके सिर को एक स्मृति चिन्ह के रूप में अपने बालों से उसके गले में बांध दिया। उसने युद्ध के मैदान में बहादुरी से लड़ाई लड़ी और औरंगजेब की सेना को चलाने के लिए बनाया लेकिन जीत के बाद भी उसने युद्ध के मैदान से जाने से इनकार कर दिया और उसने अपनी गर्दन भी काट ली क्योंकि वह अब और नहीं रहना चाहता था।

हादी रानी ने अपने डगमगाते पति को युद्ध के मैदान में जाकर अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए प्रेरित किया और मेवाड़ को अपने पति के लिए एक उपहार के रूप में अपना सिर बलिदान कर दिया। बहादुर हादी रानी को सम्मान देने के लिए टोंक जिले के टोडा राय सिंह में उनके नाम पर बावड़ी बनाई गई है। बावड़ी को बावड़ी या बावड़ी या वाव भी कहा जाता है।

हाड़ी रानी

हाड़ी रानी राजस्थान की एक रानी थीं। वह हाड़ा चौहान राजपूत की बेटी थीं और उनका ब्याह रतन सिंह चूड़ावत से हुआ था। रतन सिंह मेवाड़ के सलुम्बर के सरदार थे। हाड़ा रानी ने अपने पति को रणक्षेत्र में उत्साहित करने हेतु जीवन का उत्सर्ग कर दिया था।


टेलीग्राम ज्वाइन करेयहाँ क्लिक करे 

हाड़ी रानी बूंदी के शासक भाव सिंह हाड़ा के पुत्र संग्राम सिंह हाड़ी की पुत्री थी। इनका जन्म बसंत पंचमी के दिन हुआ था। इनका नाम सलेह कंवर था।

किंवदन्तियों के अनुसार, मेवाड़ के राज सिंह प्रथम (1653–1680) ने जब रतन सिंह को मुगल गवर्नर अजमेर सुबह के विरुद्ध विद्रोह करने के लिये आह्वान किया, उस समय रतन सिंह का विवाह हुए कुछ ही दिन हुए थे। उन्हें कुछ हिचकिचाहट हुई। लेकिन राजपूतों की परम्परा का ध्यान रखते हुए वे रणक्षेत्र में जाने को तैयार हुए और अपनी हाड़ी रानी से कुछ ऐसा चिह्न माँगा जिसे लेकर वह रनक्षेत्र में जा सकें। रानी हाड़ी को लगा कि वे रतन सिंह के राजपूत धर्म के पालन में एक बाधा बन रहीं हैं, रानी ने अपना सिर एक प्लेट पर काटकर दे दिया। थाल में रखकर, कपड़े से ढककर जब सेवक वह सिर लेकर उपस्थित हुआ, तो रतन सिंह को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होने उस सिर को उसके ही बालों से बांध लिया और लड़े। जब विद्रोह समाप्त हो गया तब रतन सिंह को जीवित रहने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी। उन्होने अपना भी सिर काटकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी।



रतन सिंह स्वयं की शादी एक सप्ताह पूरा नहीं हुआ था और राजसिंह और चारूमती की शादी में ओरंगजेब कोई बाधा उत्पन्न न कर दे इसके लिए रतन सिंह ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए और हाडी रानी का भी क्षत्रीय चरित्र रहा होगा कि रतन सिंह के एक निशानी मांगने पर आपना सर काट के दे दिया शादी को महज एक सप्ताह हुआ था। न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आलता। सुबह का समय था। हाड़ा सरदार गहरी नींद में थे। रानी सज धजकर राजा को जगाने आई। उनकी आखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही थी। रानी ने हंसी ठिठोली से उन्हें जगाना चाहा। इस बीच दरबान आकर वहां खड़ा हो गया। राजा का ध्यान न जाने पर रानी ने कहा, महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा है। वह ठाकुर से तुरंत मिलना चाहते हैं। आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है।[1] असमय में दूत के आगमन का समाचार। ठाकुर हक्का बक्का रह गया। वे सोचने लगे कि अवश्य कोई विशेष बात होगी। राणा को पता है कि वह अभी ही ब्याह कर के लौटे हैं। आपात की घड़ी ही हो सकती है। उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा, दूत का तुरंत लाकर बिठाओ। मैं नित्यकर्म से शीघ्र ही निपटकर आता हूं, हाड़ा सरदार ने दरबान से कहा। सरदार जल्दी जल्दी में निवृत्त होकर बाहर आया। सहसा बैठक में बैठे राणा के दूत पर उसकी निगाह जा पड़ी। औपचारिकता के बाद ठाकुर ने दूत से कहा, अरे शार्दूल तू। इतनी सुबह कैसे? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है? सारा मजा फिर किरकिरा कर दिया। सरदार ने फिर दूत से कहा, तेरी नई भाभी अवश्य तुम पर नाराज होकर अंदर गई होगी। नई नई है न। इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोली। ऐसी क्या आफत आ पड़ी थी। दो दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते। मियां बीवी के बीच में क्यों कबाब में हड्डी बनकर आ बैठे। अच्छा बोलो राणा ने मुझे क्यों याद किया है? वह ठहाका मारकर हंस पड़ा। दोनों में गहरी दोस्ती थी। सामान्य दिन अगर होते तो वह भी हंसी में जवाब देता। शार्दूल खुद भी बड़ा हंसोड़ था। वह हंसी मजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था, लेकिन वह बड़ा गंभीर था। दोस्त हंसी छोड़ो। सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है। मुझे भी तुरंत वापस लौटना है। यह कहकर सहसा वह चुप हो गया। अपने इस मित्र के विवाह में बाराती बनकर गया था। उसके चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देखकर हाड़ा सरदार का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयीं है। दूत संकोच रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं। हाड़ा सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश लेकर वह लाया था। उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे। हाड़ा के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे। नव विवाहित हाड़ी रानी के हाथों की मेंहदी भी तो अभी सूखी न होगी। पति पत्नी ने एक दूसरे को ठीक से देखा पहचाना नहीं होगा। कितना दुखदायी होगा उनका बिछोह? यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा। पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता हैं। अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था।




क्या लिखा था पत्र में 
वीरवर। अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको। मुसलमान सेना उसकी सहायता को आगे बढ़ रही है। इस समय औरंगजेब को मैं घेरे हुए हूं। उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके तब तक मैं पूरा काम निपट लेता हूं। तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो। यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है। जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है। मुझे तुम पर भरोसा है। हाड़ा सरदार के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उसकी सैनिक टुकड़ी अति अल्प है। राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छीने हुए क्षेत्रों को मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था। औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी एडी चोटी की ताकत लगा दी थी। वह चुप होकर बैठ गया था। अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी। राणा से चारुमती के विवाह ने उसकी द्वेष भावना को और भी भड़का दिया था। इसी बीच में एक बात और हो गयीं थी जिसने राजसिंह और औरंगजेब को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया था। यह संपूर्ण हिन्दू जाति का अपमान था। इस्लाम को कुबूल करो या हिन्दू बने रहने का दंड भरो। यही कह कर हिन्दुओं पर उसने जजिया कर लगाया था।[2] राणा राजसिंह ने इसका विरोध किया था। उनका मन भी इसे सहन नहीं कर रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कई अन्य हिन्दू राजाओं ने उसे अपने यहां लागू करने में आनाकानी की। उनका साहस बढ़ गया था। गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मंद पड़ गयीं थी फिर से प्रज्ज्वलित हो गई थी। दक्षिण में शिवाजी, बुंदेलखंड में छत्रसाल, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, मारवाड़ में राठौड़ वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरुद्ध उठ खड़े हुए थे। यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह और मारवाड़ के जसवंत सिंह जो मुगल सल्तनत के दो प्रमुख स्तंभ थे। उनमें भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी। मुगल बादशाह ने एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था। राणा राजसिंह ने सेना के तीन भाग किए थे। मुगल सेना के अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौपा था। अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीम सिंह का था। वे स्वयं अकबर और दुर्गादास राठौड़ के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे। सभी मोर्चों पर उन्हें विजय प्राप्त हुई थी। बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय कॉकेशियन बेगम बंदी बना ली गयीं थी। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचाकर निकल सका था। मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उनके जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उनके विरुद्ध सिर न उठा सका था।

लेकिन क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था या किसी और को? हाड़ा रानी और हाड़ा सरदार को किसी भी प्रकार से गम नहीं था। मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गए। उसकी जान के भी लाले पड़े थे। उसका बचकर निकलना मुश्किल हो गया था तब उसने दिल्ली से अपनी सहायता के लिए अतिरिक्त सेना बुलवाई थी। राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था। उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करन के लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।


केसरिया बाना पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी वह अचंभित थी। कहां चले स्वामी? इतनी जल्दी। अभी तो आप कह रहे थे कि चार छह महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है आराम से कटेगी यह क्या? आश्चर्य मिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से बोली। प्रिय। पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती है। वह शुभ घड़ी अभी ही आ गई। देश के शत्रुओं से दो दो हाथ होने का अवसर मिला है। मुझे यहां से अविलंब निकलना है। हंसते-हंसते विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो हाड़ा सरदार ने मुस्करा कर पत्नी से कहा। हाड़ा सरदार का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा ? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी अन्तर्द्वंद में उसका मन फंसा था। उसने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी। विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी राजी की तेज आंखों से छिपा न रह सका। यद्यपि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर। पति विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गयीं। आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं धन्य हो गयीं, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं आप जाएं स्वामी। मैं विजय माला लिए द्वार पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी। उसने अपने नेत्रों में उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था। पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी। चलते चलते पति उससे बोला प्रिय। मैं तुमको कोई सुख न दे सका, बस इसका ही दुख है मुझे भूल तो नहीं जाओगी ? यदि मैं न रहा तो ............। उसके वाक्य पूरे भी न हो पाए थे कि हाड़ी रानी ने उसके मुख पर हथेली रख दी। न न स्वामी। ऐसी अशुभ बातें न बोलों। मैं वीर राजपूतनी हूं, फिर वीर की पत्नी भी हूं। अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं आप निश्चित होकर प्रस्थान करें। देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें। यही मेरी प्रार्थना है। हाड़ा सरदार ने घोड़े को ऐड़ लगायी। रानी उसे एकटक निहारती रहीं जब तक वह आंखे से ओझल न हो गया। उसके मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था जिसे अभी तक उसने बरबस रोक रखा था वह आंखों से बह निकला। हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बाते करता उड़ा जा रहा था। किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कही सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दें? वह मन को समझाता पर उसक ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों के रानी के पास भेजा। उसकों फिर से स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। संदेश वाहक को आश्वस्त कर रानी ने लौटाया। दूसर दिन एक और वाहक आया। फिर वही बात। तीसरे दिन फिर एक आया। इस बार वह पत्नी के नाम सरदार का पत्र लाया था। प्रिय मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं। अंगद के समान पैर जमारक उनको रोक दिया है। मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं। यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है। पर तुम्हारे बड़ी याद आ रही है। पत्र वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना। उसे ही देखकर मैं मन को हल्का कर लिया करुंगा। हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयीं। युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे। विजय श्री का वरण कैसे करेंगे? उसके मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर ? मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न देखे। वे ही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना। हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था प्रिय। मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली... स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी। पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा। उसको देखकर हाड़ा सरदार स्तब्ध रह गया उसे समझ में न आया कि उसके नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला क्यों यदुसिंह। रानी की निशानी ले आए? यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। हाड़ा सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख से केवल इतना निकला उफ्‌ हाय रानी। तुमने यह क्या कर डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर। मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।

हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर टूट पड़ा। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की आखिरी सांस तक वह लंड़ता रहा। औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नहीं ही बढऩे दिया, जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था। इस विजय को श्रेय किसको? राणा राजसिंहि को या हाड़ा सरदार को। हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को?



यतेन्द्र सिंह हाड़ा, ठिकाना - पदमपुरा, कोटा राजस्थान।। सलुम्बर के राव चुण्डावत रतन सिंह के लिए हाड़ा शब्द का प्रयोग उचित प्रतित नहीं होता हैं। हाड़ी रानी को सम्भवत: बूंदी के हाड़ा शासकों की पुत्री होने के कारण हाड़ी रानी कहा गया।

"चुण्डावत मांगी सैनाणी,
सिर काट दे दियो क्षत्राणी"


सरदार चूंडावत थे, और रानी बूंदी के हाड़ा शासक की पुत्री थी, इसीलिए रानी को हाड़ी रानी कहा जाता है जबकि सरदार चूंडावत कहलाते हैं।

टेलीग्राम ज्वाइन करेयहाँ क्लिक करे 

टोंक के मुख्य पर्यटन स्थल निम्न है- क्लिक कर विस्तार से जानकारी प्राप्त करें
Get more service👇

Fast information

Its provide all official information which is require your inter life. Its safe to track authorised sites

Post a Comment

Previous Post Next Post